Monday, February 3, 2014

फीता


कोरे कागज़ों की बात बहुत हो गयी,
ज़िंदगी पन्ना नहीं, और तुम्हारा प्यार कलम
और वैसे भी,
ज़िंदगी कोई 2-D पन्ने पर कहाँ सिमटी

मुझे तो ज़िंदगी जूते के फित्ते की तरहा लगी
बचपन में ही अछा था
मा पेहेना देती थी जूता
दिन भर घूमता, मस्ती करता 
घर आता, तो एक छोर पकड़ाती वो फीते का
धीरे से खीच कर खोल देती
और जूता उतर जाता
पूरे दिन जूते में जकड़े पैर को
हवा मेहेसूस करके , अजीब सा सुकून मिलता
रात को पापा, पता नहीं कब जूता सॉफ कर देते
सुबहा फिरसे चमकता, मेरे पैरों पर सजता

अब थोड़ा अजीब है
ना मा से जूता पेहेने को केह सकता
ना पापा को उसे चुप छाप साफ करने को
और येह गाँठ भी अजीब सी है - जूते की
पेहेले बहुत सीधी थी ज़िंदगी
मा के थोड़े से ज़ोर से सुलझ जाती थी
अब हज़ारों गांठे हैं
एक को सुलझाने की सोचो
दुनिया दूसरी पहेली पूच लेती है

मा का लढ , पापा की छाया और शायद तुमहारा प्यार
इस खुदी से लड़ते, उलझते हुए फित्ते को
कभी तो सुलझाएगी
इस जकड़े हुए मन को वो हवा
कभी तो,  कभी तो
फिरसे छूकर जायेगी

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